राधेय (भाग -2)
पर है समाज ये कुटिल,ना जाने कितने छल किये।
जात पात करके इसने,स्वर्ण कितने मल किये।।1
ना देखता ये बाहुबल, देखता ये जन्म है।
ना देखता है गुण कभी, ना देखता ये कर्म है।।2
ना हुआ कभी यहाँ, चुनाव श्रेष्ठ का धर्म से।
क्षत्रिय होता है यहाँ,क्यों नहीं कोई कर्म से।।3
सूत पुत्र कह के मुझकों, विद्या से वंचित किया।
कैसे कहुँ उस गुरु ने, ज्ञान है संचित किया।।4
और शिष्य से कोई गुरु,पक्षपात क्यों करें।
मांग कर अंगूठा, एकलव्य से कैसे धरे।।5
हाँ था असंभव टाल सकना लेख नियती का लिखा
सामने कुछ था नहीं बस एक पथ मुझकों दिखा।।6
और भाग्य मुझकों ले चला आप ही भार्गव शरण।
ब्राह्मण नहीं था मैं इसी से,आ गया मुझ तक मरण।।7
जिस गुरु से ज्ञान पाया वे रुष्ट मुझसे हो गए
जो कीमती मोती थे मेरे दूर मुझसे हो गए।।8
दे श्राप ओ कहने लगे जो छल गया है मुझकों तू
आन पड़ने पर समय सब भूल जाएगा उनको तू।।9
पर क्या है इसमें दोष मेरा, ये सब तो मेरा भाग्य था।
ना जाने क्या था दोष मेरा,जो रुष्ट मेरा आराध्य था।।10