लो बज चुकी रणभेरी है, युद्ध की कुरुक्षेत्र में।
अनगिनत शीश कटने लगे हैं,पावन धरा रण क्षेत्र में ।।
सब ओर रुदन है, चीख है, क्रोध है,संवेग है।
पर रोक सकता ना कोई वीरों के शर की वेग है।।
पर रो पड़ी देख कर के,नियती भी पक्ष मेरा।
साथ जिसके श्री हरि , वो पार्थ अंतिम लक्ष्य मेरा।।
और क्या होंगी इससे भी बड़ी, विडंबना संसार में।
जो है स्वयं महादेव ,वो आ कर खड़े मेरे मार्ग में।।
और हो रही है नियति मेरी ना जाने इतनी क्यों कठोर
ले रही परीक्षा मेरी, प्रतिदिन घोर अति घनघोर।।
हाँ आकर खड़ी है राजमाता, नैनों में अश्रु भरे।
कहती है मुझसे आ जा तू,निज जननी की ऊँगली धरे।।
पर हो गया है कर्ण का हृदय अब पाषण है।
या रहूँगा मैं या, पार्थ लेगा मेरे प्राण है।।
और आ खड़े है द्वार पे, स्वयं यहाँ पे सुरपति।
मांगते कुण्डल कवच, मुझसे मेरी है भूपति।।
पर वचनों से मैं हूं बंधा,पीछे हटना भी पाप है।
जो बचा है छीन मुझसे,जीवन ये देता श्राप है।।
पर चीर कर भी दूंगा मैं छाती के अपने मांस को।
पर सह नहीं सकता ये कर्ण , एक भिक्षा के उपहास को।
हाँ, हो गया है अमर कर्ण, दान के इस कर्म से।
सामने मेरे स्वर्ग है,नज़रे झुकाये शर्म से।।
पुत्र गंगा सोए हैं अब,पार्थ की शर सैया में।
राधेय चल पड़ा है अब,चढ़ने को रण की नैया में।।
🖋️विकास पटेल
यह कविता महारथी कर्ण पर आधारित है। एक ऐसा नाम जो अमर है हमेशा हमेशा के लिए।यह तृतीय भाग है जो कर्ण के जीवन आये हुए विकट परिस्थितियों को बताते है ।आप सभी से अनुरोध है की इस कविता को पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया जरूर दे।
*पाठकों के सुझाओं का स्वागत रहेगा।
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